Saturday, 9 May 2015

 
श्राद्धपक्ष, पितृपक्षकनागत

भारतीय धर्मग्रंथों में मनुष्य को तीन प्रकार के ऋणों-देवऋणषिऋणव पितृऋण से मुक्त होना आवश्यकबताया गया है।  इनमें पितृ  सर्वोपरि है।  पितृऋण यानी हमारे उन जन्मदाता एवं पालकों का ऋण,जिन्होंने हमारे इस शरीर का लालन-पालन कियाबडा और योग्य नाया। हमारी आयुआरोग्य एवं सु-सौभाग्य आदि की अभिवृद्धि के लिए सदैव कामना कीयथासंभव प्रयास किएउनके ऋण से मुक्त हुए बिनाहमारा जीवन व्यर्थ  ही होगा। इसलिए उनके जीवन काल में उनकी सेवा-सुश्रुषा द्वारा और मरणोपरांतश्राद्धकर्म द्वारा पितृऋण से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है। श्राद्ध शब्द की व्युत्पत्ति से ही यह तथ्य्पष्ट हो जाता है कि इस कार्य  श्रद्धा के साथ करना चाहिए (्रद्धया दीयतेयस्मात्तच्छ्राद्धम्)। पूर्वजों कीपुण्यतिथि अथवा पितृपक्ष में उनकी मरण-तिथि के दिन उनकी आत्मा की संतुष्टि के लिए किया जाने वालाश्राद्ध-कर्म सही मायनों में पूर्वजों के प्रति श्रद्धांजलि ही है। इसीलिए सनातन धर्म में श्राद्ध को देव-पूजन कीतरह ही आवश्यक एवं पुण्यदायकमाना गया है। देवताओ से पहले पितरो को प्रसन् करना अधिककल्याणकारी होता है। वायु पुराण ,मत्स्य पुराण ,गरु पुराणविष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रोंजैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है 

भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन मास के  कृष्णपक्ष की अमावस्या तक की  (कुल 15 दिन) अवधि को पितृपक्ष(श्राद्धपक्षकहा गया है। श्राद्ध यानी श्रद्धया दीयतेयत् तत श्राद्धम्अर्थात् श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। वेदों में1500मंत्र श्राद्ध के बारे में हैं। पुराणोंस्मृतियों  अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी श्राद्ध का बहुतायत उल्लेख है।श्राद्धपक्ष को कनागत नाम भी से भी जाना जाता है। कनागत, [ कन्यागत (सूर्य)] क्वार के महीने काकृष्णपक्षजिसमें पितरों का श्राद्ध किया जाता है। कनागत, कन्यार्कगत का अपभ्रंशहैिसका अर्थ है सूर्य[अर्कका कन्या राशि में जाना। श्राद्धपक्ष में सूर्य कन्या राशि में होता हैइसीलिए इसेकन्यार्कगत[कनागतकहा जाता है। आश्विन मास के कृष्णपक्ष में पितृलोक हमारी पृथ्वी के सबसे ज्यादासमीप होता है। अतएव इस पक्ष को पितृपक्ष माना जाना बिल्कुल ठीक है।   कनागत में पूर्वजों का आशीर्वादप्राप्त करने और सुख सौभाग्य की वृद्धि के लिए पितरों के निमित्त तर्पण किया जाता है। श्राद्ध और तर्पणवंशज द्वारा पूर्वजों की दी गई श्रद्धांजलि है। हमें किसी भी स्थिति ें अपने इस आध्यात्मिक कर्तव्य सेविमुख नहीं होना चाहिए। 

पितृपक्ष में पितृगणोंके निमित् तर्पण करने से वे तृप्त होकर अपने वंशज को सुख-समृद्धि-सन्तति काशुभाशीर्वाद देते हैं  पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16 दिनों तक पूर्वजों कीआत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है   पूरे 16 दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्तिमिलती है ।  पितृ श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता हैभोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान -दक्षिणा दी जाती हैइससे स्वास्थ्य समृ्द्धिआयु  सुख शान्ति रहती है    श्राद्धपक्ष ाद्रपद शुक्ल पूर्णिमासे आश्चिन कृ्ष्ण अमावस्या के मध्य जो भी दान -धर्म किया जाता है ।  वह सीधा पितरों को प्राप्त ोनेकी मान्यता है   पितरों तक यह भोजन ब्राह्माणों  पक्षियों के माध्यम से पहुंचता है । कौवे एवं पीपल कोपितरोंका प्रतीक माना गया है। पितृपक्ष के इन 16दिनों में कौवे को ग्रास वं पीपल को जल देकर पितरोंकोतृप्त किया जाता है।

बुद्धि एवं तर्क प्रधान इस युग में श्राद्धों के औचित्य को सामान्यत:स्वीकार नहीं किया जाता। किंतु इस रूप में इसपर कोई विवाद नहीं होना चाहिए कि श्राद्ध पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं। श्राद्ध हमसे श्रद्धा चाहते हैं,पाखंड नहीं। यह श्रद्धा सभी बुजुर्गो के प्रति होनी चाहिएचाहे वे जीवित हों या दिवंगत। आत्मकल्याण केइच्छुक ोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध अवश्य करें।

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.